प्राकृतिक ढंग से जब मानव, करता आहार विहार नहीं.
जब प्रकृति अवज्ञा करता है, अरु प्रकृति उसे दरकार नहीं.
तब उसे स्वस्थ रह जाने का, रहता कोई अधिकार नहीं.
फिर उसका कोई भी सपना, है हो पाता साकार नहीं.
शारीरिक वात पित्त और कफ़, यह ही त्रिदोष कहलाते हैं.
त्रिदोष विषमता आते ही, मानव रोगी हो जाते हैं.
हम किसे चिकित्सा कहते हैं, त्रिदोषों में समता लाना.
मन्दाग्नि से ही होता है, रोगों का पैदा हो जाना.
जिस घर में तुलसी होती है, उस घर में वैद्य न आता है.
यह चलता फिरता अस्पताल, वास्तव में प्रिय गौमाता है.
मानव शरीर कफ़ पित्त वात से, सदा प्रभावित पाते हैं.
काया के सारे रोगों में, यह ही त्रिदोष दिखलाते हैं.
कफ़ सदा मनुज वक्षस्थल के, ऊपरी भाग में रहता है.
कफ़ ही से तो मस्तिष्क और सर सदा प्रभावित रहता है.
मल मूत्र द्वार के ऊपर अरु, जो उदर भाग में रहता है.
त्रिदोषों में दूसरा दोष, है पित्त - चरक यह कहता है.
तीसरा रोग है वात वायु, सारे शरीर में भ्रमण करे.
जब यह संतुलन बिगाड़े तो, मानव रोगों में रमण करे.
यह बात नियंत्रित होते ही, हर रोग नियंत्रण पाता है.
यह चलता फिरता अस्पताल, वास्तव में प्रिय गौमाता है.
[श्री सतीश चन्द्र चौरसिया 'सरस' जी द्वारा रचित 'गौ अभिनन्दन ग्रन्थ' से साभार]
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